राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूर्ति के लिए मुफ्त की पॉलिसी

मुफ्तखोरी को बढ़ावा देनेवाली राजनीतिको लेकर एक जनहित याचिका मु सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गयी है। इस याचिकामें कहा गया है कि मध्य प्रदेश और राजस्थानमें सरकारें चुनावोंसे पहले मुफ्तकी रेवड़ियां बांट रही है। इनपर रोक लगायी जाय। इस सम्बन्धमें बीती ६ अक्तूबरको सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रकी पीठने मध्य प्रदेश, राजस्थानकी सरकारोंकी अलावा केन्द्र सरकार, चुनाव आयोग और रिजर्व बैंकको नोटिस जारी किया है। सुप्रीम कोर्टने इस मामलेमें सभी पक्षोंको चार हफ्तोंके भीतर जवाब दाखिल करनेको कहा है। इसके साथ ही कोर्टने इस विषयपर चल रही अन्य याचिकाओंको भी एक साथ जोड़ दिया है। अब सभी मामलोंकी सुनवाई अब एक साथ होगी। वहीं इससे पहले जनवरी २०२२ में सुप्रीम कोर्ट वकील अश्विनी उपाध्याय फ्रीबीजके खिलाफ एक जनहित याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे। अपनी याचिकामें अश्विनी उपाध्यायने चुनावों के दौरान राजनीतिक पार्टियोंके वोटर्ससे फ्रीबीज या मुफ्त उपहारके वादोंपर रोक लगानेकी अपील की थी। इसमें मांग की गयी थी कि चुनाव आयोगको ऐसी पार्टियांकी मान्यता रद करनी चाहिए। केन्द्र सरकारने अश्विनीसे सहमति जताते हुए सुप्रीम कोर्टसे फ्रीबीजकी परिभाषा तय करनेकी अपील की थी। चुनावी रेवड़ीका दांव कोई नया नहीं है। सियासी खलीफा समय-समय पर इसे आजमाते रहे हैं। दक्षिणके राज्योंमें तो चुनावी रेबड़ियां बांटे जानेका चलन आम रहा है। लेकिन आम आदमी पार्टीके दिल्ली और पंजाब मॉडलने इसे संस्कृतिका रूप दे दिया है। अब तो चुनावी रेवड़ी सियासतदानोंकी रणनीतिका हिस्सा बन गयी है। वे बेझिझक इसकी वकालत करने लगे हैं। यदि कुछ लोग इसका विरोध करते दिखते हैं तो वह विरोध भी जुबानी होता है। इसका उनके सियासी आचरणसे दूर-दूरतक कोई लेना-देना नहीं होता। कर्नाटक विधानसभा चुनाव इसका बेहतरीन उदाहरण है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत जैसे देशमें जहां करोड़ों लोगोंको गरीबी से उबारना है वहां जन कल्याणकी योजनाएं तो चलानी ही होंगी लेकिन जन-कल्याणके काम करने और रेवड़ियां बांटनेमें अन्तर होता है । इस अन्तरको समझने के बजाय रेवड़ी संस्कृतिको अपनाया जा रहा है। जब एक दल ऐसा करता है तो दूसरा भी ऐसा ही कुछ करने को मजबूर हो जाता है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी भी कई मौकोंपर इस ओर ध्यान आकर्षित कर चुके हैं कि रेवड़ी संस्कृति किस तरह लोकतंत्र और अर्थतंत्रका बेड़ा गर्क कर रही है। फिलवक्त जो व्यवस्था है उसके मुताबिक चुनाव आयोग राजनीतिक दलोंके घोषणा-पत्रोंपर ही अपनी आपत्ति जता सकता है। वह चुनाव बाद बनी सरकारकी ओरसे लिये जानेवाले लोकलुभावन फैसलोंके खिलाफ कुछ नहीं कर सकता। अकसर देखा गया है कि राजनीतिक दल वोटरोंको लुभानेके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। कुछ दल तो अनाप-शनाप लोकलुभावन घोषणाएं करके एक तरहसे वोट खरीदने लगे हैं। यह ठीक है कि औसत मतदाता परिपक्व हैं, लेकिन सभी ऐसे नहीं जो मुफ्तकी योजनाओंसे होनेवाले नुकसानको समझ सकें। यह वही कल्चर है, जिसे मुफ्तखोरीकी राजनीति भी कहा जाता है। यह राजनीति न केवल लोकतांत्रिक मूल्योंके विपरीत है, बल्कि देशकी आर्थिक स्थितिपर नकारात्मक प्रभाव डालनेवाली भी है। यह किसीसे छिपा नहीं कि रेवडियां बांटने की राजनीतिक संस्कृतिने न जाने कितने देशोंको तबाह किया है। यूरोपके कुछ विकसित देश इसी रेवड़ी संस्कृतिके कारण आज आर्थिक संकटसे गुजर रहे हैं। भारतके पड़ोसमें ही श्रीलंका, पाकिस्तानका भी इसी रेवड़ी संस्कृतिने बुरा हाल किया है। अपने देशमें ही देखा जाय तो कई राज्य सरकारें इस रेवड़ी संस्कृतिके कारण लगभग दीवालिया होनेकी कगारपर हैं। उनका बजट घाटा बढ़ता जा रहा है, लेकिन वे मुफ्तखोरीकी राजनीतिका परित्याग करनेके लिए तैयार नहीं। इस राजनीतिने राज्यके बिजली बोर्डोंका भी बुरा हाल कर रखा है, क्योंकि राज्य सरकारें चुनावी लाभके लिए मुफ्तमें या लागतसे बहुत कममें बिजली दे रही हैं। इसका दुष्परिणाम बिजली बोर्ड भुगत रहे हैं।

चुनाव जीतने के इरादेसे राजनीतिक दलोंकी ओरसे की जानेवाली लोकलुभावन घोषणाओंको लेकर आम जनताको भी चेतना चाहिए, क्योंकि ऐसी योजनाएं अंततः उसके लिए मुसीबत बनती हैं और अर्थव्यवस्थाका बेड़ा भी गर्क करती हैं। मनरेगा योजनाके बारेमें रह-रहकर यह सवाल उठता रहता है कि आखिर यह कानून लोगोंको आर्थिक रूपसे सक्षम बनानेमें कितनी सहायक है। इसी तरह यह सवाल भी उठता रहता है कि कर्ज माफीकी योजनाएं किसानों और कृषिका कितना भला कर पा रही हैं। यह निराशाजनक है कि कर्ज माफी योजनाओंकी नाकामीके बावजूद कई राजनीतिक दल चुनावके मौकेपर खुदको किसानोंका हितैषी साबित करने और उनके वोट हासिल करने के लिए कर्ज माफी करनेकी घोषणाएं करते रहते हैं। यह ठीक नहीं। राजनेताओंकी दानवीर कर्णकी यह भूमिका स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रही है। अपना उल्लू सीधा करनेके लिए मतदाताको बरगलाना आदर्श चुनाव संहिताको ठेंगा दिखाने जैसा है।

सही मायनोंमें वादोंकी घूससे निर्वाचन प्रक्रिया दूषित होती है, इसलिए इस घूसखोरीको आदर्श आचार संहिताके दायरेमें लाना जरूरी है। वैसे भी इन वादों की हकीकत जमीनपर उतरी होती तो आज देशवासी खुशहाल जिन्दगी जी रहे होते। मुफ्त रेवड़ियों या फ्रीबीकी संस्कृतिपर बहस आसानीसे उन बुनियादी मुद्दोंको भूला देती है जो यह यह मान लेती है कि लोग उसी पार्टीको वोट देते हैं जो उन्हें सबसे अधिक रेवड़ियोंकी पेशकश करती है। आम आदमी पार्टीकी राजनीतिका तो आधार ही दिल्ली मॉडलकी रेवड़ी हैं। कर्नाटकमें आम आदमी पार्टीके घोषणापत्रमें ३०० यूनिट तक मुफ्त बिजली, छात्रोंके लिए शहरोंमें मुफ्त बस यात्रा और ३००० रुपयेकी बेरोजगारी भत्ताको शामिल किया गया था। अब किसे मतलब है कर्नाटककी आर्थिक सेहतसे, जो पहलेसे ही साढ़े पांच लाख करोड़ रुपयेके कर्जसे दबा हुआ है। इसकी भरपाई सरकार अप्रत्यक्ष करसे ही कर सकती है, जिसका बोझ आखिरकार गरीबोंको ही ढोना होगा। रेवड़ी संस्कृति सरकारी खर्चमें वृद्धि करती है और सार्वजनिक कर्जको बढ़ाती है। वर्तमानमें देशका राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। राजकोषीय घाटे और बढ़ते सार्वजनिक कर्जकी चिन्ताको नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। रिजर्व बैंकके आंकड़े बताते हैं कि मार्च २०२१ तक देशके सभी राज्योंपर कुल ६९.४७ लाख करोड़ रुपयेसे अधिकका कर्ज है। कहनेका मतलब ये है कि स्थिति गम्भीर है और चुनावी रेवड़ियोंका कनातमें परोसा जाना यदि जारी रहता है तो तमाम चमक बावजूद देशको अंधेरेके गर्तमें जानेसे कोई नहीं बचा सकता ।

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