वाराणसी। भरत के अयोध्या वापसी के बाद अब श्रीराम को वन में आनें का प्रयोजन पूरा करना था, तो आगे चलनें की राह देखनें लगे। देवता तो अपनें स्वार्थ में इतनें उतावले हो गए थे कि छोटी छोटी बात पर उनकी निष्ठा ही डोलनें लगती थी। श्रीराम कोई मनुष्य तो थे नहीं, साक्षात प्रभु थे। रामनगर की रामलीला के 16वें दिन श्रीराम के चित्रकूट से पंचवटी पहुंचनें तक का प्रसंग मंचित किया गया।
वन में श्रीराम के बल की थाह लेनें के लिए इंद्र का पुत्र जयंत कौवे का वेश बनाकर उनके पास आता है और सीता के चरण में चोंच मारकर भागनें लगता है। सीता के पैर से खून बहता देख राम नें एक बाण मारा। जयंत अपनी जान बचानें के लिए देवताओं की शरण में पहुंच गया, लेकिन किसी नें उसकी कोई सहायता नहीं की। अंत में वह नारद की शरण में गया। नारद नें उसे राम के पास जाकर क्षमा याचना करनें को कहा। जब वह उनकी शरण में गया तो राम नें उसकी एक आंख फोड़ कर उसे अभयदान दे दिया। राम वन में अत्रि मुनि के आश्रम में पहुंचे तो मुनि नें उनका आतिथ्य सत्कार करनें के बाद उनकी स्तुति की। अनुसूईया नें सीता को स्त्री धर्म सिखाया। वन में राम मतंग ऋषि से मिले। राक्षस विराज नें क्रोध से गर्जना करते हुए सर्प की तरह झपट कर सीता को चुरा लिया तो राम नें सात बाणों से मारकर उसका वध करके सीता को बचा लिया।
रास्ते में शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त आदि ऋषियों से मिलते हुए राम पंचवटी पहुंचे। वहां पर्ण कुटी बनाकर निवास करनें लगे। लक्ष्मण नें उनसे कुछ जाननें की इच्छा से ज्ञान, विराग, माया, भक्ति, ईश्वर और जीव के भेद को समझानें और शोक, मोह, और भ्रम दूर करनें को कहा तो उन्होंने उनको अपना उपदेश सुनाया। जिसे सुनकर वह उनके चरणों में गिर पड़े और कहा कि मेरा संदेह दूर हो गया। मुझे ज्ञान और नेह हुआ है। यहीं पर आरती के बाद लीला को विराम दिया गया।
